अगरबत्ती के धुंए की तरह, कुछ यादें...
मेरे नज़दीक यूँ आयीं, और यूँ
हवा में समा सी गयीं, के जैसे...
बस एक खुशबु सी है अभी भी यहाँ, जो एहसास दिला रही है,
उनसे मुखातिब होने का..
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खुद से बडबडाते हुए, सालों से,
एक चुप्पी सी सध गयी है सीने में,
अँधेरे सी तीखी, रौशनी सी तेज़,
ना चुप रहने देती है, और ना लफ्ज़ आ पातें है कम्बखत जुबां पे,
उफ़ ये हाल-ए- तन्हाई...
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चायपत्ती, इलाईची, और चीनी की मंद मंद खुशबु,
और गुनगुनाती सर्दियों की ये धुंध भरी सुबह..
चलो कहीं तो कोई किसी अपने के लिए चाय बना रहा, लगता है..